दक्कन के किसानों का दंगल
औपनिवेशिक बंगाल के किसानों और जमींदारों और राजमहल की पहाड़ियों के पहाड़िया और संथाल लोगों के जीवन जो परिवर्तन आये, हमने पिछले दो लेखो- १. औपनिवेशिक बंगाल में भूमि बंदोबस्त, २.राजमहल की पहाड़ियों में हल, कुदाल और संथाल – में देखा। अब दृष्टिपात करें कि बम्बई दक्कन के देहाती क्षेत्र में क्या हो रहा था। ऐसे परिवर्तनों का पता लगाने का एक तरीका है वहाँ के किसान विद्रोह पर ध्यान कें दित्र करना। ऐसे नाजकु दौर मे विद्रोही अपना गुस्सा और प्रकोपोन्माद दिखलाते हैं वे जिसे अन्याय और अपने दु:ख-दर्द का कारण समझते है उनके खिलाफ़ आवाज बुलंद करते है।
यदि हम उनकी नाराजगी के आधारभूत कारणो को जानने का प्रयत्न करे है और उनके गुस्से की परतें उधेड़ने लगते हैं तो हम उनके जीवन और अनुभव की झलक देख पाते हैं जो अन्यथा हमसे छिपी रहती है। विद्रोहों के बारे में ऐसे अभिलेख भी उपलब्ध होते हैं, जिनका इतिहासकार अवलोकन कर सकते हैं। विद्रोहियों की करतूतों से उत्तेजित होकर और पुन: व्यवस्था स्थापित करने की उत्कट इच्छा से, राज्य के प्राधिकारी केवल विद्रोह को ही दबाने का प्रयत्न नहीं करते, बल्कि वे उसे जानने-बूझने की कोशिश करते हैं और उसके कारणों की भी जाँचा करते हैं जिससे कि नीतियाँ निर्धारित की जा सकें और शांति की स्थापना हो सके। ऐसी जाँच-पड़ताल से साक्ष्य उत्पन्न होता है जिसके बारे में इतिहासकार शो्ध कर सकें। उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान, भारत के विभिन्न प्रांतों के किसानों ने साहूकारों और अनाज के व्यापारियों के विरूद्ध अनेक विद्रोह किए। ऐसा ही एक विद्रोह दक्कन में 1875 में हुआ।
लेखा बहियाँ जला दी गईं
यह आंदोलन पूना ;आधुनिक पुणे जिले के एक बड़े गाँव सूपा में शुरू हुआ। सूपा एक विपणन केंद्र ;मंडी था जहाँ अनेक व्यापारी और साहूकार रहते थे। 12 मई 1875 को, आसपास के ग्रामीण इलाकों के रैयत ;किसान इकट्ठे हो गए, उन्होंने साहूकारों से उनके बही-खातों और ऋणबंधो की माँग करते हुए उन पर हमला बोल दिया। उन्होंने उनके बही-खाते जला दिए, अनाज की दुकानें लूट लीं और कुछ मामलों में तो साहूकारों के घरों को भी आग लगा दी। पूना से यह विद्रोह अहमदनगर में फ़ैल गया। फ़िर अगले दो महीनों में यहाँ और भी आग फ़ैल गई और 6,500 वर्ग किलोमीटर का इलाका इनकी चपेट में आ गया। तीस से अधिक गाँव इससे कुप्रभावित हुए।
सब जगह विद्रोह का स्वरूप एकसमान ही था: साहूकारों पर हमला किया गया, बही-खाते जला दिए गए और ऋणबंध नष्ट कर दिए गए। किसानों के हमलों से घबराकर साहूकार गाँव छोड़कर भाग गए, अधिकतर मामलों में वे अपनी संपत्ति और ईोान-दौलत भी वहीं पीछे छोड़ गए। जब विद्रोह फ़ैला तो ब्रिटिश अधिकारियों की आँखों के सामने 1857 का गदर दृश्य आ गया। विद्रोही किसानों के गाँवों में पुलिस थाने स्थापित किए गए। जल्दी से सेनाएँ बुला ली गईं। 95 व्यक्तियों को गिफ़तार कर लिया गया और उनमें से बहुतों को दंडित दिया गया। लेकिन देहात को काबू करने में कई महीने लग गए। ऋणपत्र और दस्तावेज क्यों जलाए गए थे? यह विद्रोह क्यों हुआ? इससे हमें दक्कन के देहात के बारे में और वहाँ औपनिवेशिक शासन में हुए कॄषि या भूमि संबंधी परिवर्तनों के बारे में क्या पता चलता है? आइए उन्नीसवीं शताब्दी में हुए परिवर्तनों के लंबे इतिहास पर दृष्टिपात करें।
एक नयी राजस्व प्रणाली
जैसे-जैसे ब्रिटिश शासन बंगाल से भारत के अन्य भागों में फ़ैलता गया वहाँ भी राजस्व की नयी प्रणालियाँ लागू कर दी गईं। इस्तमरारी बंदोबस्त को बंगाल से बाहर बिरले ही लागू किया गया। ऐसा क्यों किया गया? इसका एक कारण तो यह था कि 1810 के बाद खेती की कीमतें बढ़ गईं, जिससे उपज के मूल्य में वृद्धि हुई और बंगाल के जमींदारों की आमदनी में इजाफ़ा हो गया। चूँकि राजस्व की माँग इस्तमरारी बंदोबस्त के तहत तय की गई थी, इसलिए औपनिवेशिक सरकार इस बढ़ी हुई आय में अपने हिस्से का कोई दावा नहीं कर सकती थी। अपने वित्तीय संसाधनों को बढ़ाने की उत्कट इच्छा से, औपनिवेशिक सरकार को अपने भू-राजस्व को अधिक से अधिक बढ़ाने के तरीको पर विचार करना पड़ा। इसलिए उन्नीसवीं शताब्दी में औपनिवेशिक शासन में शामिल किए गए प्रदेशों में राजस्व बंदोबस्त किए गए। अन्य भी कई कारण थे।
जब अधिकारी नीतियाँ निर्धारित करते हैं तो उनकी विचारधारा उन आर्थिक सिद्धांतों से अत्यधिक प्रभावित रहती है जिनसे वे अधिकारी पहले से परिचित होते हैं। 1820 के दशक तक इंग्लैंड में डेविड रिकार्डो एक जाने-माने अर्थशास्त्री के रूप में विख्यात थे। औपनिवेशिक अधिकारियों ने अपने महाविद्यालयी जीवन में रिकार्डो के विचारों का अध्ययन किया था। महाराष्ट्र में जब ब्रिटिश अधिकारियों ने 1820 के दशक में प्रारंभिक बंदोबस्त की शर्तो करने का काम हाथ में लिया तो वे इन्हीं में से कुछ विचारों के अनुसार कार्रवाई करने लगे। रिकार्डो के विचारों के अनुसार भूस्वामी को उस समय लागू 'औसत लगानों' को प्राप्त करने का ही हक होने चाहिए। जब भूमि औसत लगान' से अधिक प्राप्ति होने लगे तो भूस्वामी को अधिशेष आय होगी जिस पर सरकार को कर लगाने की आवश्यकता होगी। यदि कर नहीं लगाया गया तो किसान किरायाजीवी में बदल जाएँगे और उनकी अधिशेष आय का भूमि के सुधार में उत्पादक रीति से निवेश नहीं होगा।
भारत में अनेक ब्रिटिश अधिकारियों ने सोचा कि बंगाल के इतिहास ने रिकार्डो के सिद्धांत की पुष्टि कर दी है। वहाँ जमींदार लोग किरायाजीवियों के रूप में बदल गए प्रतीत हुए क्योंकि उन्होंने अपनी जमीनें पट्टे पर दे दीं और किराये की आमदनी पर निर्भर रहने लगे। इसलिए ब्रिटिश अधिकारियों के विचार से अब यह आवश्यक था कि एक भिन्न राजस्व प्रणाली अपनाई जाए। जो राजस्व प्रणाली बम्बई दक्कन में लागू की गई उसे रैयतवाड़ी कहा जाता है। बंगाल में लागू की गई प्रणाली के विपरीत, इस प्रणाली के अंतर्गत राजस्व की राशि सीधे रैयत के साथ तय की जाती थी। भिन्न-भिन्न प्रकार की भूमि से होने वाली औसत आय का अनुमान लगा लिया जाता था। रैयत की राजस्व अदा करने की क्षमता का आकलन कर लिया जाता था और सरकार के हिस्से के रूप में उसका एक अनुपात निर्धारित कर दिया जाता था। हर 30 साल के बाद जमीनों का फ़िर से सर्वेक्षण किया जाता था और राजस्व की दर तदनुसार बढ़ा दी जाती थी। इसलिए राजस्व की माँग अब चिरस्थायी नहीं रही थी।
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राजस्व की माँग और किसान का कर्ज
बम्बई दक्कन में पहला राजस्व बंदोबस्त 1820 के दशक में किया गया। माँगा गया राजस्व इतना अधिक था कि बहुत से स्थानों पर किसान अपने गाँव छोड़कर नए क्षेत्रों में चले गए। जिन इलाकों की जमीन घटिया किस्म की थी और वर्षा भी कम ज्यादा होती थी, खास तौर पर समस्या और भी विकट थी। जब वर्षा नही होती थी आरै फसल खराब होती थी तो किसानों के लिए राजस्व अदा करना असंभव हो जाता था। फ़िर भी, राजस्व इकट्ठा करने वाले प्रभारी कलेक्टर अपनी कार्यकुशलता को प्रदर्शित करने और अपने बड़े अधिकारियों को प्रसन्न करने के लिए अत्यंत उत्कट रहते थे। इसलिए वे अत्यंत कठोरतापूर्वक राजस्व वसूल करने का प्रयत्न करते थे। जब कई किसान अपना राजस्व नही दे पाता था तो उसकी फसल जब्त कर ली जाती थीं और समूचे गाँव पर जुर्माना ठोक दिया जाता था। 1830 के दशक तक आते-आते यह समस्या और भी गंभीर हो गई।
सन् 1832 के बाद कॄषि उत्पादों की कीमतों में तेजी से गिरावट आई और लगभग डेढ़ दशक तक इस स्थिति में कोई सुधार नहीं आया। इसके परिणामस्वरूप किसानों की आय में और भी गिरावट आई। इसी दौरान, 1832-34 के वर्षों में देहाती इलाके अकाल की चपेट में आकर बरबाद हो गए। दक्कन का एक-तिहाई पशुधन मौत के मुँह में चला गया और आधी मानव जनसंख्या भी काल का ग्रास बन गई। और जो बचे, उनके पास भी उस संकट का सामना करने के लिए खाद्यान्न नहीं था। राजस्व की बकाया राशियाँ आसमान को छूने लगीं। ऐसे समय में किसान लोग कैसे जीवित रहे? उन्होंने राजस्व कैसे अदा किया, अपनी जरूरत की चीजो को कैसे जुटाया, अपने हल-बैल कैसे खरीदे अथवा बच्चों की शादियाँ कैसे कीं? यह सब करने के लिए पैसा उधार लेने के अलावा उनके पास और कोई चारा नहीं था। ऋणदाता से पैसा उधार लेकर ही राजस्व चुकाया जा सकता था लेकिन यदि रैयत ने एक बार ऋण ले लिया तो उसे वापस करना उसके लिए कठिन हो गया। कजर् बढ़ता गया, उधार की राशियाँ बकाया रहती गईं और ऋणदाताओं पर किसानों की निर्भरता बढ़ती गई।
अब स्थिति यहाँ तक बिगड़ गई थी कि किसानों को अपनी रोजमर्रा की जरूरतों को खरीदने और अपने उत्पादन के खर्च को पूरा करने के लिए भी कर्जे लेने पड़ते थे। 1840 के दशक तक, अधिकारियों को भी इस बात का साक्ष्य मिलने लगा था कि सभी जगह के किसान कर्ज के बोझ के तले भयंकर रूप से दबे जा रहे थे। 1840 के दशक के मध्य में एक विशेष प्रकार के आर्थिक पुनरूत्थान के लक्षण दिखाई देने लगे। तब अनेक ब्रिटिश अधिकारियों ने यह महसूस करना शुरू कर दिया कि 1820 के दशक में किए गए राजस्व संबंधी बंदोबस्त कठोरतापूर्ण थे। माँगा गया राजस्व बहुत ज्यादा था, व्यवस्था कठोर एवं लचकहीन थी, और किसानों की अर्थव्यवस्था का भट्ठा बैठने वाला था। इसलिए खेती का विस्तार करने के लिए किसानों को प्रोत्साहित करने की दृष्टि से राजस्व संबंधी माँग को कुछ हलका किया गया। 1845 के बाद कॄषि उत्पादा की कीमत शनै शनै बढत़ी गई। किसान अपने कॄषि क्षेत्र को बढ़ाने लगे थे, इसके लिए वे नए-नए इलाकों में जा रहे थे और गोचर भूमियों को कॄषि भूमि में बदल रहे थे। लेकिन किसानों को अपनी खेती का विस्तार करने के लिए अधिक हल-बैल चाहिए थे। उन्हें बीज और जमीन खरीदने के लिए पैसे की जरूरत थी। इन सब कामों के लिए उन्हें एक बार फ़िर पैसा उधार लेने के लिए ऋणदाताओं के पास जाना पड़ा।
फ़िर कपास में तेजी आई
1860 के दशक से पहले, ब्रिटेन में कच्चे माल के तौर पर आयात की जाने वाली समस्त कपास का तीन-चौथाई भाग अमेरिका से आता था ब्रिटेन के सूती वस्त्रों के विनिर्माता काफ़ी लंबे अरसे से अमेरिकी कपास पर अपनी निर्भरता के कारण बहुत परेशान थे। अगर यह स्रोंत बंद हो गया तो हमारा क्या होगा? इस प्रश्न से विचलित होकर, वे बड़े उत्सुकता से कपास की आपूर्ति के वैकल्पिक स्रोंत खोज रहे थे। 1857 में, ब्रिटेन में कपास आपूर्ति संघ की स्थापना हुई और 1859 में मैनचेस्टर कॉटन कंपनी बनाई गई। उनका उद्देश्य दुनिया के हर भाग में कपास के उत्पादन को प्रोत्साहित करना था जिससे कि उनकी कंपनी का विकास हो सके। भारत को एक ऐसा देश समझा गया जो अमेरिका से कपास की आपूर्ति बंद हो जाने की सूरत में, लंकाशायर को कपास भेज सकेगा। भारत की भूमि और जलवायु दोनों ही कपास की खेती के लिए उपयुक्त थे और यहाँ सस्ता श्रम उपलब्ध था।
जब सन् 1861 में अमेरिकी गृहयुद्ध छिड़ गया तो ब्रिटेन के कपास क्षेत्र ;मंडी तथा कारखानों में तहलका मच गया। अमेरिका से आने वाली कच्ची कपास के आयात में भारी गिरावट आ गई। वह सामान्य मात्रा का 3 प्रतिशत से भी कम हो गया: 1861 में जहाँ 20 लाख गाँठें ;हर गाँठ 400 पाउंड की आई थीं वहीं 1862 में केवल 55 हजार गाँठों का आयात हुआ। भारत तथा अन्य देशों को बड़ी व्यग्रता के साथ यह संदेश भेजा गया कि ब्रिटेन को कपास का अधिक मात्रा में निर्यात करें। बम्बई में, कपास के सौदागरों ने कपास की आपूर्ति का आकलन करने और कपास की खेती को अधिकाधिक प्रोत्साहन देने के लिए कपास पैदा करने वाले हृज़िंलों का दौरा किया। जब कपास की कीमतों में उछाल आया ।
बम्बई के कपास निर्यातकों ने ब्रिटेन की माँग को पूरा करने के लिए अधिक से अधिक कपास खरीदने का प्रयत्न किया। इसके लिए उन्होंने शहरी साहूकारों को अधिक से अधिक अग्रिम, राशियाँ दी ताकि वे भी आगे उन ग्रामीण ऋणदाताओं को जिन्होंने उपज को उपलब्ध कराने का वचन दिया था, अधिकाधिक मात्रा में राशि उधार दे सकें। जब बाजार में तेजी आती है तो ऋण आसानी से दिया जाता है क्योंकि ऋणदाता अपनी उधार दी गई राशियों की वसूली के बारे में अधिक आश्वस्त महसूस करते हैं। इन बातो का दक्कन के देहाती इलाको मे काफ़ी असर हुआ। दक्कन के गाँवों के रैयतों को अचानक असीमित ऋण उपलब्ध होने लगा। उन्हें कपास उगाई जाने वाले प्रत्येक एकड़ के लिए 100 रु- अग्रिम राशि दी जाने लगी। साहूकार भी दीर्घावधिक ऋण देने के लिए एकदम तैयार थे।
जब अमेरिका में संकट की स्थिति बनी रही तो बम्बई दक्कन में कपास का उत्पादन बढ़ता गया। 1860 से 1864 के दौरान कपास उगाने वाले एकड़ों की संख्या दोगुनी हो गई। 1862 तक स्थिति यह आई कि ब्रिटेन में जितना भी कपास का आयात होता था उसका 90 प्रतिशत भाग अकेले भारत से जाता था। लेकिन इन तेजी के वर्षों में सभी कपास उत्पादकों को समृद्धि प्राप्त नहीं हो सकी। कुछ ईोानी किसानों को तो लाभ अवश्य हुआ। लेकिन अधिकांश किसान कजर् के बोझ से और अधिक दब गए। 3-5 ऋण का स्रोंत सूख गया जिन दिनों कपास के व्यापार में तेजी रही, भारत के कपास व्यापारी, अमेरिका को स्थायी रूप से विस्थापित करके, कच्ची कपास के विश्व बाजार को अपने कब्जे में करने के सपने देखने लगे। 1861 में बोंबे गजट के संपादक ने पूछा, दस राज्यों ;संयुक्त राज्य अमेरिका को विस्थापित करके, लंकाशायर को कपास का एकमात्र आपूर्तिकर्ता बनने से भारत को कौन रोक सकता है?य् लेकिन 1865 तक ऐसे सपने आने बंद हो गए। जब अमेरिका में गृहयुद्ध समाप्त हो गया तो वहाँ कपास का उत्पादन फ़िर से चालू हो गया और ब्रिटेन के भारतीय कपास के निर्यात में गिरावट आती चली गई।
महाराष्ट्र में निर्यात व्यापारी और साहूकार अब दीर्घावधिक ऋण देने के लिए उत्सुक नहीं रहे। उन्होंने यह देख लिया था कि भारतीय कपास की माँग घटती जा रही है और कपास की कीमतों में भी गिरावट आ रही है। इसलिए उन्होंने अपना कार्य-व्यवहार बंद करने, किसानों को अग्रिम राशियाँ प्रतिबंधित करने और बकाया ऋणों को वापिस माँगने का निर्णय लिया। एक ओर तो ऋण का स्रोंत सूख गया वहीं दूसरी ओर राजस्व की माँग बढ़ा दी गई। जैसा कि हमने ऊपर पढ़ा है, पहला राजस्व बंदोबस्त 1820 और 1830 के दशकों में किया गया था। अब अगला बंदोबस्त करने का समय आ गया था। और इस नए बंदोबस्त में माँग को, नाटकीय ढंग से, 50 से 100 प्रतिशत तक बढ़ा दिया गया। भला, बेचारे रैयत उस हालत में, जबकि कीमतें गिर रही थीं और कपास के खेत गायब हो रहे थे, इस प्रकार बढ़ी हुई माँग को कैसे पूरा कर सकते थे? इसलिए उन्हें एक बार फ़िर ऋणदाता की शरण में जाना पड़ा।
लेकिन ऋणदाता ने अबकी बार ऋण देने से इनकार कर दिया। उसे अब रैयत द्वारा ऋण वापस अदा किए जाने की उसकी क्षमता में विश्वास नहीं रहा था। 3-6 अन्याय का अनुभव ऋणदाता द्वारा ऋण देने से इनकार किए जाने पर, रैयत समुदाय को बहुत गुस्सा आया। वे इस बात के लिए ही क्रुद्ध नहीं थे कि वे ऋण के गर्त में गहरे से गहरे डूबे जा रहे हैं अथवा कि वे अपने जीवन को बचाने के लिए ऋणदाता पर पूर्ण रूप से निर्भर हैं, बल्कि वे इस बात से ज्यादा नाराज थे कि ऋणदाता वर्ग इतना संवेदनहीन हो गया है कि वह उनकी हालत पर कोई तरस नहीं खा रहा है। ऋणदाता लोग देहात के प्रथागत मानकों यानी रूढ़ि रिवाजों का भी उल्लंघन कर रहे थे। पैसा उधार देने का कारोबार निश्चित रूप से औपनिवेशिक शासन से पहले भी काफ़ी फ़ैला हुआ था और ऋणदाता अकसर ताकतवर हस्तियाँ होते थे। कई प्रकार के प्रथागत मानक ऋणदाता और रैयत के पारस्परिक संबधें पर लागू होते थे और उन्हें विनियमित करते थे। एक सामान्य मानक यह था कि ब्याज मूलधन से अधिक नहीं लिया जा सकता था।
इसका प्रयोजन ऋणदाता द्वारा की जाने वाली जबरन वसूली को सीमित करना और यह पारिभाषित करना था कि 'उचित ब्याज' क्या होना चाहिए। औपनिवेशिक शासन में इस नियम की धज्जियां उड़ा दी गईं। दक्कन दंगा आयोग द्वारा छानबीन किए गए मामलों में से एक मामले में ऋणदाता ने 100 रु- के मूलधन पर 2ए000 रु- से भी अधिक ब्याज लगा रखा था। अनेकानेक याचिकाओं में रैयत लोगों ने इस प्रकार की जबरन वसूलियों और प्रथाओं के उल्लंघन से संबंधित अन्याय के विरुद्ध शिकायत की थी।
रैयत ऋणदाता को कुटिल और धेखेबाज समझने लगे थे। वे ऋणदाताओं के द्वारा खातों में धेखाधड़ी करने और कानून को ध्त्ता बताने की शिकायतें करते थे। 1859 में अंग्रेजों ने एक परिसीमन कानून पारित किया जिसमें यह कहा गया कि ऋणदाता और रैयत के बीच हस्ताक्षरित ऋणपत्र केवल तीन वर्षों के लिए ही मान्य होंगे। इस कानून का उद्देश्य बहुत समय तक ब्याज को संचित होने से रोकना था। किन्तु ऋणदाता ने इस कानून को घुमाकर अपने पक्ष में कर लिया और रैयत से हर तीसरे साल एक नया बंधपत्र भरवाने लगा। जब कोई नया बांड हस्ताक्षरित होता तो न चुकाई गई शेष राशि अर्थात् मूलधन और उस पर उत्पन्न तथा इकट्ठा हुए संपूर्ण ब्याज को मूलधन के रूप में दर्ज किया जाता और उस पर नए सिरे से ब्याज लगने लगता। दक्कन दंगा आयोग को प्राप्त हुई याचिकाओं में रैयत लोगों ने यह बतलाया कि यह प्रक्रिया कैसे काम कर रही थी और किस प्रकार ऋणदता लोग रैयत को ठगने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाते थे : जब ऋण चुकाए जाते तो वे रैयत को उसकी रसीद देने से इनकार कर देते थे, बंधपत्रों में जाली आंकड़े भर लेते थे, किसानों की फसल नीची कीमतों पर ले लेते थे और आखिरकार किसानों की धन-संपति पर ही कब्जा कर लेते थे।
तरह-तरह के दस्तावेज और बंधपत्र इस नयी अत्याचारपूर्ण प्रणाली के प्रतीक बन गए। पहले ऐसे दस्तावेज बहुत ही कम हुआ करते थे। किन्तु ब्रिटिश अधिकारी अनौपचारिक समझौते के आधर पर पुराने ढंग से किए गए लेन-देन को संदेह की दृष्टि से देखते थे। उनके विचार से लेन-देन की शर्तों संविदाओं, दस्तावेजों और बंधपत्रों में साफ़-साफ़, सुस्पष्ट और सुनिश्चित शब्दों में कही जानी चाहिए और वे विधिसम्मत होनी चाहिए। जब तक कि कोई दस्तावेज या संविदा कानून की दृष्टि से प्रवर्तनीय नहीं होगा तब तक उसका कोई मूल्य नहीं होगा। समय के साथ, किसान यह समझने लगे कि उनके जीवन में जो स्रोंत 10 भी दु:ख तकलीफ है वह सब बंधपत्रों और दस्तावेजों की इस नयी व्यवस्था के कारण ही है। उनसे दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करवा लिए जाते और अँगूठे के निशान लगवा लिए जाते थे पर उन्हें यह पता नहीं चलता कि वास्तव में वे किस पर हस्ताक्षर कर रहे हैं या अँगूठे के निशान लगा रहे हैं। उन्हें उन खंडों के बारे में कुछ भी पता नहीं होता जो ऋणदाता बंधपत्रों में लिख देते थे। वे तो हर लिखे हुए शब्द से डरने लगे थे। मगर वे लाचार थे क्योंकि जीवित रहने के लिए उन्हें ऋण चाहिए थे और ऋणदाता कानूनी दस्तावेजों के बिना ऋण देने को तैयार नहीं थे।
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दक्कन दंगा आयोग
जब विद्रोह दक्कन में फ़ैला तो प्रारंभ में बम्बई की सरकार उसे गंभीरतापूर्वक लेने को तैयार नहीं थी। लेकिन भारत सरकार ने, जो कि 1857 की याद से चिंतित थी बम्बई की सरकार पर दबाव डाला कि वह दंगों के कारणों की छानबीन करने के लिए एक जाँच आयोग बैठाए। आयोग ने एक रिपोर्ट तैयार की जो 1878 में ब्रिटिश पार्लियामेंट में पेश की गई। यह रिपोर्ट जिसे दक्कन दंगा रिपोर्ट कहा जाता है, इतिहासकारों को उन दंगों का अध्ययन करने के लिए आधार सामग्री उपलब्ध् कराती है। आयोग ने दंगा पीड़ित जिलों में जाँच पड़ताल कराई, रैयत वर्गों, साहूकारों और चश्मदीद गवाहों के बयान लिए, भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में राजस्व की दरों, कीमतों और ब्याज के बारे में आंकडे इकट्ठा किए और जिला कलेक्टरों द्वारा भेजी गई रिपोर्ट का संकलन किया।
ऐसे स्रोंतों पर दृष्टिपात करते समय, हमें यह फ़िर याद रखना होगा कि वे सरकारी स्रोंत हैं और वे घटनाओं के बारे में सरकारी सरोकार और अर्थ प्रतिबिंबित करते हैं। उदाहरण के लिए, दक्कन दंगा आयोग से विशिष्ट रूप से यह जाँच करने के लिए कहा गया था कि क्या सरकारी राजस्व की माँग का स्तर विद्रोह का कारण था। और संपूर्ण साक्ष्य प्रस्तुत करने के बाद आयोग ने यह सूचित किया था कि सरकारी माँग किसानों के गुस्से की वजह नहीं थी। इसमें सारा दोष ऋणदाताओं या साहूकारों का ही था। इससे यह बात स्पष्ट होती है कि औपनिवेशिक सरकार यह मानने को कदापि तैयार नहीं थी कि जनता में असंतोष या रोष कभी सरकारी कार्रवाही के कारण उत्पन्न हुआ था। इस प्रकार, सरकारी रिपोर्ट इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए बहुमूल्य स्रोंत सिद्ध होती हैं। लेकिन उन्हें हमेशा सावधानीपूर्वक पढ़ा जाना चाहिए और समाचारपत्रों, गैर-सरकारी वृतांतों, वैधिक अभिलेखों और यथासंभव मौखिक स्रोंतों से संकलित साक्ष्य के साथ उनका मिलान करके उनकी विश्वसनीयता की जाँच की जानी chaahiye
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with warm regards
Harish Sati
Indira Gandhi National Open University
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