प्राचीन भारतीय इतिहास के साहित्यिक साधन

प्राचीन भारतीय इतिहास के साहित्यिक साधन

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> प्राचीन भारत की सभ्यता, संस्कृति तथा शासन कला का अध्ययन करने के पूर्व इतिहास
> की उन सामग्रियों का अध्ययन करना अत्यावश्यक है जिनके द्वारा हमें प्राचीन भारत
> के इतिहास का ज्ञान होता है। यों तो भारत के प्राचीन साहित्य तथा दर्शन के
> संबंध में जानकारी के अनेक साधन उपलब्ध हैं, परन्तु भारत के प्राचीन इतिहास की
> जानकारी के साधन संतोषप्रद नहीं है। उनकी न्यूनता के कारण अति प्राचीन भारतीय
> संस्कृति एवं शासन का क्रमवद्ध इतिहास नहीं मिलता है। फिर भी ऐसे साधन उपलब्ध
> हैं जिनके अध्ययन एवं सर्वेक्षण से हमें भारत की प्राचीनता की कहानी की जानकारी
> होती है। इन साधनों के अध्ययन के बिना अतीत और वर्तमान भारत के निकट के संबध की
> जानकारी होती है। इन साधनों के अध्ययन के बिना अतीत और वर्तमान भारत के निकट के
> संबंध की जानकारी करना भी असंभव है।
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> प्राचीन भारत के इतिहास की जानकारी के साधनों को दो भागों में बाँटा जा सकता
> है-साहित्यिक साधन और पुरातात्विक साधन, जो देशी और विदेशी दोनों हैं।
> साहित्यिक साधन दो प्रकार के हैं-धार्मिक साहित्य और लौकिक साहित्य। धार्मिक
> साहित्य भी दो प्रकार के हैं-ब्राह्मण ग्रन्थ और अब्राह्मण ग्रन्थ। ब्राह्मण
> ग्रन्थ दो प्रकार के हैं-श्रुति जिसमें वेद ब्राह्मण उपनिषद इत्यादि आते हैं और
> स्मृति जिसके अन्तर्गत रामायण महाभारत पुराण स्मृतियाँ आदि आती हैं। लौकिक
> साहित्य भी चार प्रकार के हैं-ऐतिहासिक साहित्य विदेशी विवरण, जीवनी और कल्पना
> प्रधान तथा गल्प साहित्य।
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> प्राचीन भारतीय इतिहास की जानकारी के प्रमुख साधन साहित्यिक ग्रन्थ हैं जिन्हें
> दो उपखण्डों में रखा जा सकता है-धार्मिक साहित्य और लौकिक साहित्य। इनका
> पृथक-पृथक उल्लेख करना आवश्यक है।
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> *ब्राह्मण या धार्मिक साहित्य*-
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> ब्राह्मण ग्रन्थ प्राचीन भारतीय इतिहास का ज्ञान प्रदान करने में अत्यधिक सहयोग
> देते हैं। भारत का प्राचीनतम साहित्य प्रधानतः धर्म-संबंधी ही है। ऐसे अनेक
> ब्राह्मण ग्रन्थ हैं जिनके द्वारा प्राचीन भारत की सभ्यता तथा संस्कृति की
> कहानी जानी जाती है। वे निम्नलिखित मुख्य हैं-
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> (क) *वेद*- ऐसे ग्रन्थों में वेद सर्वाधिक प्राचीन हैं और वे सबसे पहले आते
> हैं। वेद आर्यों के प्राचीनत ग्रन्थ हैं जो चार हैं-ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद
> और अथर्ववेद से आर्यों के प्रसार; पारस्परिक युद्ध; अनार्यों, दासों, दासों और
> दस्युओं से उनके निरंतर संघर्ष तथा उनके सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक संगठन की
> विशिष्ट मात्रा में जानकारी प्राप्त होती है। इसी प्रकार अथर्ववेद से तत्कालीन
> संस्कृति तथा विधाओं का ज्ञान प्राप्त होता है।
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> (ख) *ब्राह्मण*- वैदिक मन्त्रों तथा संहिताओं की गद्य टीकाओं को ब्राह्मण
> कहा जाता है। पुरातन ब्राह्मण में ऐतरेय, शतपथ, पंचविश, तैतरीय आदि विशेष
> महत्वपूर्ण हैं। ऐतरेय के अध्ययन से राज्याभिषेक तथा अभिषिक्त नृपतियों के
> नामों का ज्ञान प्राप्त होता है। शथपथ के एक सौ अध्याय भारत के पश्चिमोत्तर के
> गान्धार, शाल्य तथा केकय आदि और प्राच्य देश, कुरु, पांचाल, कोशल तथा विदेह के
> संबंध में ऐतिहासिक कहानियाँ प्रस्तुत करते हैं। राजा परीक्षित की कथा
> ब्राह्मणों द्वारा ही अधिक स्पष्ट हो पायी है।
>
> (ग) *उपनिषद*-उपनिषदों में 'बृहदारण्यक' तथा 'छान्दोन्य', सर्वाधिक प्रसिद्ध
> हैं। इन ग्रन्थों से बिम्बिसार के पूर्व के भारत की अवस्था जानी जा सकती है।
> परीक्षित, उनके पुत्र जनमेजय तथा पश्चातकालीन राजाओं का उल्लेख इन्हीं उपनिषदों
> में किया गया है। इन्हीं उपनिषदों से यह स्पष्ट होता है कि आर्यों का दर्शन
> विश्व के अन्य सभ्य देशों के दर्शन से सर्वोत्तम तथा अधिक आगे था। आर्यों के
> आध्यात्मिक विकास प्राचीनतम धार्मिक अवस्था और चिन्तन के जीते जागते जीवन्त
> उदाहरण इन्हीं उपनिषदों में मिलते हैं।
>
> (घ) *वेदांग*-युगान्तर में वैदिक अध्ययन के लिए छः विधाओं की शाखाओं का जन्म
> हुआ जिन्हें 'वेदांग' कहते हैं। वेदांग का शाब्दिक अर्थ है वेदों का अंग, तथापि
> इस साहित्य के पौरूषेय होने के कारण श्रुति साहित्य से पृथक ही गिना जाता है।
> वे ये हैं-शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, छन्दशास्त्र तथा ज्योतिष। वैदिक
> शाखाओं के अन्तर्गत ही उनका पृथकृ-पृथक वर्ग स्थापित हुआ और इन्हीं वर्गों के
> पाठ्य ग्रन्थों के रूप में सूत्रों का निर्माण हुआ। कल्पसूत्रों को चार भागों
> में विभाजित किया गया-श्रौत सूत्र जिनका संबंध महायज्ञों से था, गृह्य सूत्र जो
> गृह संस्कारों पर प्रकाश डालते थे, धर्म सूत्र जिनका संबंध धर्म तथा धार्मिक
> नियमों से था, शुल्व सूत्र जो यज्ञ, हवन-कुण्ठ बेदी, नाम आदि से संबंधित थे।
> वेदांग से जहाँ एक ओर प्राचीन भारत की धार्मिक अवस्थाओं का ज्ञान प्राप्त होता
> है, वहाँ दूसरी ओर इसकी सामाजिक अवस्था का भी।
>
> (ङ) *रामायणः महाभारत*—वैदिक साहित्य के उत्तर में रामायण और महाभारत नामक
> दो महाकाव्य साहित्य का प्रणयन हुआ। सम्पूर्ण धार्मिक साहित्य में ये दोनों
> महाकाव्य अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। रामायण की रचना महर्षि बाल्मीकि ने की
> जिसमें अयोध्या की रामकथा है। इसमें राज्य सीमा, यवनों और शकों के नगर, शासन
> कार्य रामराज्य आदि का वर्णन है। मूल महाभारत का प्रणयन व्यास मुनि ने किया।
> महाभारत का वर्तमान रूप प्राचीन इतिहास कथाओं उपदेशों आदि का भण्डार है। इस
> ग्रन्थ से भारत की प्राचीन सामाजिक तथा धार्मिक अवस्थाओं पर प्रकाश पड़ता है।
> इन दोनों महाकाव्यों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे आर्य संस्कृति के दक्षिण
> में प्रसार का निर्देश करते हैं। रामायण में तत्कालीन पौर जनपदों और महाभारत से
> 'सुधमां' और 'देवसभा' का हमें जो ज्ञान प्राप्त हुआ है, उससे पता चलता है कि
> राजा किस सीमा तक स्वेच्छाचारी था और कहां तक उसके प्रभाव और कार्य की सीमायें
> इन राजनीतिक संस्थाओं तथा प्रजा प्रतिनिधित्व द्वारा परिमित थी।
>
> (च) *पुराण*- महाकाव्यों के पश्चात् पुराण आते हैं जिनकी संख्या अठारह है।
> इनकी रचना का श्रेय 'सूत' लोमहर्षण अथवा उनके पुत्र उग्रश्रवस या उग्रश्रवा को
> दिया जाता है। पुराणों में पाँच प्रकार के विषयों का वर्णन सिद्धान्ततः इस
> प्रकार है-सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वंतर तथा वंशानुचरित। सर्ग बीज या आदि
> सृष्टि का पुराण है प्रतिसर्ग प्रलय के बाद की पुनर्सृष्टि को कहते हैं, वंश
> में देवताओं या ऋषियों के वंश वृक्षों का वर्णन है, मन्वन्तर में कल्प के
> महायुगों का वर्णन है जिनमें से प्रत्येक में मनुष्य का पिता एक मनु होता है और
> वंशानुचरित पुराणों के वे अंग हैं जिनमें राजवंशों की तालिकायें दी हुई हैं और
> राजनीतिक अवस्थाओं, कथाओं और घटनाओं के वर्णन हैं। उपर्युक्त पांच पुराण के
> विषय होते हुए भी अठारहों पुराणों में वंशानुचरित का प्रकरण प्राप्त नहीं होता।
> यह दुर्भाग्य ही है क्योंकि पुराणों में जो ऐतिहासिक दृष्टिकोण से अधिक
> महत्वपूर्ण विषय है, वह वंशानुचरित है। वंशानुचरित केवल भविष्य, मत्स्य, वायु,
> विष्णु, ब्रह्माण्ड तथा भागवत पुराणों में ही प्राप्त होता है। गरुड़-पुराण में
> भी पौरव, इक्ष्वाकु और बार्हदय राजवंशों की तालिका प्राप्त होती है। पर इनकी
> तिथि पूर्णतया अनिश्चित है। पुराणों की भविष्यवाणी शैली में कलियुग के नृपतियों
> की तालिकाओं के साथ शिशुनाग, नन्द, मौर्य, शुंग, कण्व, आन्ध्र तथा गुप्तवंशों
> की वंशावलियाँ भी प्राप्त होती हैं। शिशुनागों में ही बिम्बिसार एवं अजातशत्रु
> का उल्लेख मिलता है। इस प्रकार पुराण चौथी शताब्दी की स्थितियों का उल्लेख
> करते हैं। मौर्य वंश के संबंध में विष्णु पुराण में अधिक उल्लेख मिलते हैं। ठीक
> इसी प्रकार मत्स्य पुराण में मान्ध्र वंश का पूरा उल्लेख मिलता है। वायु पुराण
> गुप्त सम्राटों की शासन प्रणाली पर प्रकाश डालते हैं। इन पुराणों में शूद्रों
> और म्लेच्छों की वंशावली भी दी गयी है। आभीर, शक, गर्दभ, यवन, तुषार, हूण आदि
> के उल्लेख इन्हीं सूचियों में मिलते हैं।
>
> (छ)* स्मृतियाँ*–ब्राह्मण ग्रन्थों में स्मृतियों का भी ऐतिहासिक महत्व है।
> मनु, विष्णु, याज्ञवल्क्य नारद, वृहस्पति, पराशर आदि की स्मृतियाँ प्रसिद्ध हैं
> जो धर्म शास्त्र के रूप में स्वीकार की जाती हैं। मनुस्मृति में जिसकी रचना
> संभवतः दूसरी शताब्दी में की गयी है, धार्मिक तथा सामाजिक अवस्थाओं का पता चलता
> है। नारद तथा वहस्पति स्मृतियों से जिनकी रचना करीब छठी सदी ई. के आस-पास हुई
> थी, राजा और प्रजा के बीच होने वाले उचित संबंधों और विधियों के विषय में जाना
> जा सकता है। इसके अतिरिक्त पराशर, अत्रि हरिस, उशनस, अंगिरस, यम, उमव्रत,
> कात्यान, व्यास, दक्ष, शरतातय, गार्गेय वगैरह की स्मृतियाँ भी प्राचीन भारत की
> सामाजिक और धार्मिक अवस्थाओं के बारे में बतलाती हैं।
>
> *अब्राह्मण ग्रन्थ-*
>
>
> धार्मिक साहित्य के ब्राह्मण ग्रन्थों के अतिरिक्त अब्राह्मण ग्रन्थों से उस
> समय की विभिन्न अवस्थाओं का पता चलता है।
>
> (क) *बौद्ध ग्रन्थ*-बौद्धमतावल्बियों ने जिस साहित्य का सृजन किया, उसमें
> भारतीय इतिहास की जानकारी के लिए प्रचुर सामग्रियाँ निहित हैं। 'त्रिपिटक' इनका
> महान ग्रन्थ है। सुत, विनय तथा अमिधम्म मिलाकर 'त्रिपिटक' कहलाते हैं। बौद्ध
> संघ, मिक्षुओं तथा भिक्षुणियों के लिये आचरणीय नियम विधान विनय पिटक में
> प्राप्त होते हैं। सुत्त पिटक में बुद्धदेव के धर्मोपदेश हैं। गौतम निकायों में
> विभक्त हैं-
>
> प्रथम दीर्घ निकाय में बुद्ध के जीवन से संबद्ध एवं उनके सम्पर्क में आये
> व्यक्तियों के विशेष विवरण हैं। दूसरे संयुक्त निकाय में छठी शताब्दी पूर्व के
> राजनीतिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है, किंतु सामाजिक और आर्थिक स्थिति की जानकारी
> इससे अधिक होती है। तीसरे मझिम निकाय को भगवान बुद्ध को दैविक शक्तियों से
> युक्त एक विलक्षण व्यक्ति मानता है।
>
> चौथे, अंगुत्तर निकाय में सोलह महानपदों की सूची मिलती हैं। पाँचवें, खुद्दक
> निकाय लघु ग्रंथों का संग्रह है जो छठी शताब्दी ई. पूर्व से लेकर मौर्य काल तक
> का इतिहास प्रस्तुत करता है। अमिधम्म पिटक में बौद्ध धर्म के दार्शनिक
> सिद्धान्त हैं। कुछ अन्य बौद्ध ग्रंथ भी हैं। मिलिंदमन्ह में यूनानी शाशक
> मिनेण्डर और बौद्ध मिक्षु नागसेन के वार्तालाप का उल्लेख है।
>
> 'दीपवंश' मौर्य काल के इतिहास की जानकारी देता है। 'महावंश' भी मौर्यकालीन
> इतिहास को बतलाता है। 'महाबोधिवंश' मौर्य काल का ही इतिहास माना जाता है।
> 'महावस्तु' में भगवान बुद्ध के जीवन को बिन्दु बनाकर छठी शताब्दी ई. पूर्व के
> इतिहास को प्रस्तुत किया गया है। 'ललित विस्तार' में बुद्ध की ऐहिक लीलाओं का
> वर्णन है जो महायान से संबद्ध है। पाली की 'निदान कथा' बोधि सत्वों का वर्णन
> करती है। यातिमोक्ख, महावग्ग, चुग्लवग्ग, सुत विभंग एवं परिवार में
> भिक्खु-भिक्खुनियों के नियमों का उल्लेख है। ये पाँचों ग्रन्थ 'विनय' के
> अन्तर्गत आते हैं।
>
> अमिधम्म के सात संग्रह है जिनमें तत्वज्ञान की चर्चा की गयी है। ऐतिहासिक ज्ञान
> के लिए त्रिपिटकों का अध्ययन आवश्यक है क्योंकि इसमें बौद्ध संघों के संगठनों
> का उल्लेख किया गया है। इसी प्रकार बौद्धग्रन्थों में जातक कथाओं का दूसरा
> महत्वपूर्ण स्थान है जिनकी संख्या 549 है। ''इनका महत्व केवल इसीलिए नहीं है कि
> उनका साहित्य और कला श्रेष्ठ है, प्रत्युत तीसरी शताब्दी ई. पूर्व की सभ्यता के
> इतिहास की दृष्टि से भी उनका वैसा ऊँचा मान है।'' जातक में भगवान बुद्ध के जन्म
> के पूर्व की कथाएँ उल्लिखित हैं।
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> (ख) *जैन ग्रन्थ*- प्राचीन भारतीय इतिहास का ज्ञान प्राप्त करने के लिए जैन
> ग्रन्थ भी उपयोगी हैं। ये प्रधानतः धार्मिक हैं। इन ग्रन्थों में 'परिशिष्ट
> पर्वत' विशेष महत्वपूर्ण हैं। 'भद्रबाहु चरित्र' दूसरा प्रसिद्ध जैन ग्रन्थ है
> जिसमें जैनाचार्य भद्रबाहु के साथ-साथ चन्द्रगुप्त मौर्य के संबंध में भी
> उल्लेख मिलता है। इन ग्रन्थों के अतिरिक्त कथा-कोष, पुण्याश्रव-कथाकोष, त्रिलोक
> प्रज्ञस्ति, आवश्यक सूत्र, कालिका पुराण, कल्प सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र आदि
> अनेक जैन ग्रन्थ भारतीय इतिहास की सामग्रियां प्रस्तुत करते हैं। इनके अतिरिक्त
> दीपवंश, महावंश, मिलन्दिपन्हो, दिव्यावदान आदि ग्रन्थ की इन दोनों धर्मों तथा
> मौर्य साम्राज्य के संबंध में यत्र-तत्र उल्लेख करते हैं।
>
> *लौकिक साहित्य*
>
> ऐतिहासिक सामग्रियों की उपलब्धि के दृष्टिकोण से लौकिक साहित्य को प्रमुखतः
> निम्न भागों में बाँटा जा सकता है-
>
> (क) *ऐतिहासिक ग्रन्थः* ऐसे अनेक विशुद्ध ऐतिहासिक ग्रंथ है जिनमें केवल सम्राट
> तथा शासन से संबंधित तथ्यों का ही उल्लेख किया गया है। ऐसे ग्रन्थों में कल्हण
> कृत 'राजतरंगिणी' नामक ग्रन्थ सर्वप्रथम आता है जो पूर्णतः ऐतिहासिक है। इसमें
> कथा-वाहिक रूप में प्राचीन ऐतिहासिक ग्रन्थों राज्य शासकों और प्रशस्तियों के
> आधार पर ऐतिहासिक वृतान्त प्रस्तुत किये गये हैं। इसकी रचना। 1148 ई. में
> प्रारम्भ की गयी थी। कश्मीर के सारे नरेशों के इतिहास जानकारी इस प्रसिद्ध
> ग्रन्थ से होती है। इसमें क्रमबद्धता का पूरी तरह निर्वाह किया गया है। इसी
> श्रेणी में तमिल ग्रन्थ भी आते हैं। ये हैं नन्दिवक लाम्बकम्, ओट्टक्तूतन का
> कुलोत्तुंगज- पिललैत्त मिल, जय गोण्डार का कलिंगत्तुंधरणि, राज-राज-शौलन-उला और
> चोलवंश चरितम्। इसी श्रेणी में सिंहल के दो ग्रन्थ-दीपवंश और महावंश भी आते हैं
> जिनमें बौद्ध भारत का उल्लेख मिलता है।
>
> गुप्तकालीन विशाखदत्त का 'मुद्राराक्षस' सिकन्दर के आक्रमण के शीघ्र बाद ही
> भारतीय राजनीति का उद्घाटन करता है। पोरस, जिसने सिकन्दर के दाँत खट्टे कर दिये
> थे। मुद्राराक्षस के प्रमुख पात्रों में एक है। साथ ही साथ, चन्द्रगुप्त मौर्य
> चाणक्य तथा कुछ तत्कालीन नृपतियों का भी इसमें उल्लेख मिलता है। कौटिल्य का
> अर्थशास्त्र भी इस संबंध में महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है जिसकी रचना मुद्राराक्षस
> के पूर्व ही की गयी थी। इस ग्रन्थ में रचनाकार ने तत्कालीन शासन-पद्धति पर
> प्रकाश डाला है। राजा के कर्त्तव्य, शासन-व्यवस्था, न्याय आदि अनेक विषयों के
> संबंध में कौटिल्य ने प्रकाश डाला है। वास्तव में मौर्यकालीन इतिहास का यह
> ग्रन्थ एक दर्पण है।
>
> पाणिनी का 'अष्टाध्यायी' एक व्याकरण ग्रन्थ होते हुए भी मौर्य पूर्व तथा
> मौर्यकालीन राजनीतिक अवस्था पर प्रकाश डालता है। इसी तरह पातंजलि का 'महाभाष्य'
> भी राजनीति के संबंध में चर्चा करता है। 'शुक्रनीतिसार' भी एक महत्त्वपूर्ण
> ऐतिहासिक ग्रन्थ है जिसमें तत्कालीन भारतीय समाज का वर्णन मिलता है। ज्योतिष
> ग्रन्थ गार्गी संहिता पुराण का एक भाग है जिसमें यवनों के आक्रमण का उल्लेख
> किया गया है। कालिदास का 'मालविकाग्निमित्र' साहित्यिक होते हुए भी ऐतिहासिक
> सामग्रियाँ प्रस्तुत करता है। इस ग्रन्थ में कालिदास ने पुष्यमित्र शुंग के
> पुत्र अग्निमित्र तथा विदर्भराज की राजकुमारी मालविका की प्रेम कथा का उल्लेख
> किया है।
>
> (ख) *विदेशी विवरण*–देशी लेखकों के अतिरिक्त विदेशी लेखकों के साहित्य से भी
> प्राचीन भारत के इतिहास पृष्ठ निर्मित किये गये हैं। अनेक विदेशी यात्रियों एवं
> लेखकों ने स्वयं भारत की यात्रा करके या लोगों से सुनकर भारतीय संस्कृति में
> ग्रन्थों का प्रणयन किया है। इनमें यूनान, रोम, चीन, तिब्बत, अरब आदि देशों के
> यात्री शामिल हैं। यूनानियों के विवरण सिकन्दर के पूर्व, उसके समकालीन तथा उसके
> पश्चात की परिस्थितियों से संबंधित हैं। स्काइलेक्स पहला यूनानी सैनिक था जिसने
> सिन्धु नदी का पता लगाने के लिए अपने स्वामी डेरियस प्रथम के आदेश से सर्वप्रथम
> भारत की भूमि पर कदम रखा था। इसके विवरण से पता चलता है कि भारतीय समाज में
> उच्चकुलीन जनों का काफी सम्मान था। हेकेटियस दूसरा यूनानी लेखक था जिसने भारत
> और विदेशों के बीच कायम हुए राजनीतिक संबंधों की चर्चा की है। हेरोडोटस जो एक
> प्रसिद्ध यूनानी लेखक था, ने यह लिखा है कि भारतीय युद्ध प्रेमी थे। इसी लेखक
> के ग्रन्थ से यह भी पता चलता है कि भारत का उत्तरी तथा पश्चिमी देशों से मधुर
> संबंध था। टेसियस ईरानी सम्राट जेरेक्सस का वैद्य था जिसने सिकन्दर के पूर्व के
> भारतीय समाज के संगठन रीति रिवाज, रहन-सहन इत्यादि का वर्णन किया है। पर इसके
> विवरण अधिकांशतः कल्पना प्रधान और असत्य हैं।
>
> सिकन्दर के समय में भी ऐसे अनेक लेखक थे जिन्होंने भारत के संबंध में ग्रन्थों
> की रचना की। ये लेखक सिकन्दर के भारत पर आक्रमण के समय ही उसके साथ भारतवर्ष
> आये थे। इनमें अरिस्टोबुलस, निआर्कस, चारस, यूमेनीस आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
> सिकन्दर के पश्चात् कालीन यात्रियों और लेखकों में मेगास्थनीज, प्लनी, तालिमी,
> डायमेकस, डायोडोरस, प्लूटार्क, एरियन, कर्टियस, जस्टिन, स्ट्रेबो आदि के नाम
> उल्लेख मेगास्थनीज यूनानी शासक सेल्यूकस की ओर से राजदूत के रूप में
> चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में आया था। इसकी 'इण्डिका' भारतीय संस्थाओं भूगोल
> समाज के वर्गीकरण, पाटलिपुत्र आदि के संबध में प्रचुर सामग्रियाँ देती हैं।
> यद्यपि इस ग्रन्थ का मूल रूप अप्राप्य है, पर इसके उद्धरण अनेक लेखकों के
> ग्रन्थों में आये हैं। डायमेकस राजदूत के रूप में बिन्दुसार के दरबार में कुछ
> दिनों तक रहा जिसने अपने समय की सभ्यता तथा राजनीति का उल्लेख किया है। इस लेखक
> की भी मूल पुस्तक अनुपल्बध है तामली ने भारतीय भूगोल की रचना की। प्लिनी ने
> अपने 'प्राकृतिक इतिहास' में भारतीय पशुओं, पौधों, खनिज आदि का वर्णन किया। इसी
> प्रकार एरेलियन के लेख तथा कर्टियस, जस्टिन और स्ट्रेबो के विवरण भी प्राचीन
> भारत इतिहास के अध्ययन की सामग्रियाँ प्रदान करते हैं। 'इरिथियन' सागर का
> पेरिप्लस' नाम ग्रंथ जिसके रचयिता का नाम अज्ञात है, भारत के वाणिज्य के संबंध
> में ज्ञान देता है।

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