अस्थिर भारतीय राजनीतिक स्थिति मे यूरोपीयों का आगमन
भारतवर्ष प्राचीन काल से ही सुसंस्कृत तथा उन्नत देश रहा है। इसकी सैन्धव सभ्यता विश्व के किसी भी देश की सभ्यता से कम महत्त्व की नहीं थी। इसकी धरती पर ही भगवान बुद्ध जैसे महापुरुष पैदा हुए जिन्होंने सम्पूर्ण विश्व को ही अपना कुटुम्ब माना तथा समस्त जीवों पर दया करने का शाश्वत सन्देश दिया। यहीं देवानांप्रिय अशोक ने शासन किया जिसने शक्ति के बल पर नहीं, प्रेम-बल पर अपने साम्राज्य का विस्तार किया और जन-जन के हृदय का सम्राट् बन गया। बंगाल के पाल नरेशों एवं थानेश्वर के राजाओं के काल में भारतवर्ष में ऐसी प्रोन्नत शिक्षा-प्रणाली तथा शिक्षण संस्थाओं का संगठन हुआ कि संसार के विभिन्न देशों के जिज्ञासु छात्र और ज्ञान-पिपासु विद्वान्, अपनी मानसिक बुभुक्षा की तृप्ति तथा ज्ञान-प्राप्ति के लिए यहाँ आये।
कालान्तर में समय ने पलटा खाया और भारतवर्ष पर मुसलमानों का शासन-भार लद गया। आरम्भिक मध्य युगों में तुर्क और बाद में चुगताई-मुगल स्थायी साम्राज्य स्थापित कर शासन करने लगे। स्थायी शासन के पूर्व एवं मध्य भाग में भारत पर कई अस्थायी एवं तूफानी आक्रमण हुए। पल्लवों, शकों और हूणों की घुसपैठ अल्पकालीन सिद्ध हुई। सिकन्दर, नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली के तूफानी आक्रमण हुए और समाप्त हुए। स्थायी रूप से तुर्क और मुगल ही शासन कायम कर सके। अनेकों का खून बहाकर और सदियों तक शासन करके भी मुस्लिम विजेता भारतीय संस्कृति को विकृत न कर सके। इसके विपरीत, वे भारतीय संस्कृति के रंग में रंगते गये। अपने विदेश स्थित ठिकानों से उन्होंने अपने पुराने सम्बन्धों को तोड़ डाला और भारतीयों के साथ अपना भाग्य जोड़ डाला।
जीवन की व्यावहारिक आवश्यकताओं ने उन्हें अपनी प्रजा के साथ अधिकाधिक सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करने को विवश किया। नये वातावरण के अनुसार और प्रशासन के हित में, उन्होंने शासन और व्यवस्था सम्बन्धी अपने सिद्धान्तों तथा मान्यताओं में भी परिवर्तन किये। अपने कितने ही विदेशी रीति-रिवाजों को उन्होंने त्याग दिया और भारतीय जीवन तथा सुंस्कृति के तत्त्वों को ग्रहण कर लिया। केवल कहने भर को भारतीय गौरव और देश का इतिहास उनकी तलवार तथा धर्म (इस्लाम) के सामने श्रीहीन हुआ था। वे भारतीय बन गए थे, भारत उनका देश हो चुका था। डॉ. राममनोहर लोहिया ने लिखा है : 'राम और रहीम एक थे, हिन्दू और मुसलमान एक ही धरती की दो सन्तानें थीं।'
मुस्लिम शासकों ने भारतीय संस्कृति एवं प्रशासन के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। गियासुद्दीन बलवन ने संप्रभुता का सिद्धान्त दिया, अलाउद्दीन खिलजी ने उत्तरी तथा दक्षिण भारत के विविध राज्यों को जीतकर अखिल भारत का संदेश दिया, शेरशाह सूरी श्रेष्ठ प्रशासन की स्थापना करके ब्रिटिश शासकों का भी आदर्श बन गया, अकबर ने हिन्दू-मुस्लिम एकता एवं समन्वय का सद्प्रयास किया और शाहजहाँ ने कलात्मक उन्नति एवं श्रेष्ठता को पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया।किन्तु इस शासन में भी भारतीयता का आधार यथावत् रहा। यद्यपि मुस्लिम आधिपत्य के कारण भारत के प्राचीन समाजों में कई राजनीतिक तथा सांस्कृतिक परिवर्तन आये, तथापि उसकी प्राचीन संस्कृति का आधार और स्वरूप अधिकांशतः ज्यों-का-त्यों रहा। भारतीयों ने नवागन्तुकों को प्रभावित किया और वे उनसे प्रभावित भी हुए। 'उन्होंने विजताओं द्वारा प्रचलन में लाई गई नई सामाजिक पद्धतियाँ सीखीं।
कट्टर एकेश्वरवाद और समतावादी समाज पर बल देने वाले इस्लाम धर्म के प्रभाव ने कतिपय प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न की, और हिन्दू धर्म तथा सामाजिक पद्धतियों में एक आलोड़न पैदा हुआ। मुसलमानों की भाषाओं और साहित्यों ने हिन्दुओं की वाणी और लेखन पर व्यापक प्रभाव डाला। नये शब्द, मुहावरे और साहित्यिक विधाओं ने इस देश की धरती में जड़े जमाई और नये प्रतीकों तथा धारणाओं ने उनकी विचार-शैली को सम्पन्न किया। एक नई साहित्यिक भाषा विकसित हुई और कितनी ही मध्युगीन वास्तुकला, चित्रकला और संगीत कलाओं के साथ-साथ अन्य कलाओं में भी भारी परिवर्तन आये और ऐसी नई शैलियों ने जन्म लिया, जिनमें दोनों के ही तत्त्व विद्यमान थे। तेरहवीं शताब्दी में यह जो प्रक्रिया आरम्भ हुई, वह पाँच सौ वर्ष तक चलती रही।1
तीसरे चरण में भारत के इतिहास में परिवर्तन आया। भारतीयों की फूट तथा विघटनकारी तत्त्वों के कारण अठारहवीं शताब्दी में भारत पर अंग्रेजों का प्रभुत्व जम गया। भारत के इतिहास में लगभग पहली बार ऐसा हुआ कि इसके प्रशासन और भाग्य-निर्णय की डोर एक ऐसी विदेशी जाति के हाथों में चली गई, जिसकी मातृभूमि कई हजार मील दूर अवस्थित थी। इस तरह की पराधीनता भारत के लिए एक सर्वथा नया अनुभव थी, क्योंकि यों तो अतीत में भारत पर कई आक्रमण हुए थे समय-समय पर भारतीय प्रदेश के कुछ भाग अस्थायी तौर पर विजेताओं के उपनिवेशों में शामिल हो गये थे, पर ऐसे अवसर कम ही आये थे और उनकी अवधि भी अत्यल्प ही रही थी।
भारत पर अंग्रेजों ने एक विदेशी की तरह शासन किया। ऐसे कम ही अंग्रेज शासक हुए जिन्होंने भारत को अपना देश समझा और कल्याणकारी भावना से उत्प्रेरित होकर शासन किया। उन्होंने व्यापार और राजनीतिक साधनों के माध्यम से भारत का आर्थिक शोषण किया और धन-निकासी (drain of wealth) नीति अपनाकर देश को खोखला कर डाला। उन्होंने भारतीयों के नैतिक मनोबल पर सदैव आघात किया। इस काल के इतिहास के पन्ने, इस बात को सिद्ध करते हैं कि एक ओर जहाँ ब्रिटिश सत्ता के भारत में स्थापित हो जाने के बाद देश में घोर अन्धकारपूर्ण और निराशाजनक वातावरण स्थापित हो गया, वहाँ दूसरी ओर
इस देश के प्रति इंगलैण्ड की अधिकार लिप्सा की भावना उभरने लगी तथा अंग्रेज लोग भारत को अपने अधिकार की वस्तु और सब प्रकार से पतित देश मानने लगे। भारत का उपयोग इंगलैण्ड के लिए करना उनका प्रमुख दृष्टिकोण बन गया। संक्षेप में, अंग्रेज प्रशासन न भारतीय जनता के प्रति सहानुभूति रखते थे और न भारतवासियों के कल्याण के प्रति सजग रहे थे। इंगलैण्ड में जो कानून या नियम भारत के सम्बन्ध में बनाये जाने लगे, उनके प्रति यह ब्रिटिश नीति बनी कि भारत के हितों का इंगलैण्ड के लिए सदैव बलिदान किया जाना चाहिए। अंग्रेजों की इस नीति के कारण भारत उत्तरोत्तर आर्थिक दृष्टि से निर्धन और सांस्कृतिक दृष्टि से हीन होता चला गया। केशव चन्द्र सेन (1838-84) ने अपने समय के भारत के पतन का चित्रण अग्रलिखित शब्दों में किया है :
'आज हम अपने चारों ओर जो देखते हैं वह है एक गिरा हुआ राष्ट्र- एक ऐसा राष्ट्र जिसकी प्राचीन महानता खण्डहरों में गड़ी हुई पड़ी है। उसका राष्ट्रीय साहित्य और विज्ञान, उसका अध्यात्म ज्ञान और दर्शन, उसका उद्योग और वाणिज्य, उसकी सामाजिक समृद्धि और गार्हस्थिक सादगी और मधुरता ऐसी है जिसकी गिनती लगभग अतीत की वस्तुओं में की जाती है। जब हम आध्यात्मिक, सामाजिक और बौद्धिक दृष्टि से उजड़े हुए, शोकयुक्त और उदासीन दृश्य जो हमारे सामने फैला हुआ है- का निरीक्षण करते हैं तो हम व्यर्थ ही उसमें कालिदास के देश-कविता, विज्ञान और सभ्यता के देश को पहचानने का प्रयत्न करते हैं। 'डॉ. थ्योडोर ने ठीक ही लिखा है कि 'प्रधानतः आर्थिक लाभ के लिए ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने ब्रिटिश राज्य की स्थापना की और उसका विस्तार किया है।
सत्रहवीं शताब्दी में भारत का गौरव अपनी पराकाष्ठा पर था और उसकी मध्युगीन संस्कृति अपनी चरम सीमा पर पहुँच गई थी। परन्तु जैसे-जैसे एक के बाद एक शताब्दियाँ बीतीं वैसे-वैसे यूरोपीय सभ्यता का सूर्य तेजी से आकाश के मध्य की ओर बढ़ने लगा और भारतीय गगन में अन्धकार छाने लगा। फलतः जल्दी ही देश पर अन्धेरा छा गया और नैतिक पतन तथा राजनीतिक अराजकता की परछाइयाँ लम्बी होने लगीं।3 यह सही है कि प्रशासन एवं यातायात तथा शिक्षा के क्षेत्र में भारतवासियों ने इस विदेशी शासन से अनेक तत्त्व ग्रहण किये, किन्तु इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि अंग्रेजों ने अधिकाधिक अर्थोपार्जन करने की नीति का ही अनुशीलन किया। यही कारण था कि जहाँ भारतीयों ने मुसलमानों के शासन को स्वीकार करके उसे भारतीय शासन के इतिहास में शामिल किया वहाँ उन्होंने अंग्रजों को अपना संप्रभु नहीं माना, हृदय की गहराइयों से उनके शासन को स्वीकार नहीं किया और प्रारम्भ से ही उनके प्रति अपना विरोध प्रकट किया। अंग्रेज कभी भी भारतीय न बन सके, सदैव विदेशी बने रहे और समय आने पर सब के सब स्वदेश चले गये।
यह विदेशी शासन भारतीयों को कतई स्वीकार नहीं था। बंगाल के सिराज के काल से लेकर दिल्ली के बहादुरशाह के काल तक भारतीय शक्तियों का विरोध स्वर उठता रहा। सन् 1857 के बाद से विद्रोह और विरोध की भावना और भी जोर पकड़ने लगी। अन्ततोगत्वा अगस्त, 1947 में अंग्रेजों को भारत छोड़कर ब्रिटेन वापस जाना पड़ा। अंग्रेजी के काल के भारतीय इतिहास का उत्थान-पतन ही इस आलेख का विषय-क्षेत्र है।
भारत की तत्कालीन राजनीतिक स्थिति
भारत में विदेशियों के आगमन के समय राजनीति में दो प्रमुख शक्ति थीं : मुगल और मराठा। मुगल पतनोन्मुख हो चले थे और मराठा विकासोन्मुख थे। वास्तविकता यह थी कि औरंगजेब की मृत्यु (1707) के उपरान्त भारत में केन्द्रीय सत्ता नहीं रही और सारा देश छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त हो गया। अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही चरमराते हुए मुगल साम्राज्य को पतन की ओर अग्रसर होना ही था। साम्राज्य के विभिन्न राज्यों में संघर्ष चलने लगे और वे एक दूसरे को हड़पने के लिए निरन्तर षड्यन्त्र की रचना करने लगे। औरंगजेब की मृत्यु के पहले से ही यूरोप की विभिन्न जातियों का आगमन भारतवर्ष में होने लगा था। ये जातियाँ देश की लड़खड़ाती राजनीति और व्याप्त अराजकता को देख रही थीं।
मुगल साम्राज्य की पतनोन्मुख स्थिति :
शाहजहाँ के मरणोपरान्त लगभग पचास वर्ष तक मुगल साम्राज्य की बागडोर औरंगजेब के हाथों में रही, जो आकार, जनसंख्या और वैभव की दृष्टि से समकालीन विश्व के राज्यों में अतुलनीय था। औरंगजेब अत्यन्त ही कठोर एवं कर्तव्यनिष्ठ प्रशासक था। अपने विशाल प्रशासन के एक-एक विषय की वह देखभाल करता था और हर सैनिक अभियान का स्वयं निर्देशन करता था। उसमें अक्षय स्फूर्ति और प्रबल इच्छा-शक्ति थी। फिर भी, इतनी मेहनत सतर्क देखभाल निष्ठायुक्त पवित्र जीवन1 तथा प्रशासक, कूटनीतिज्ञ और सेनापति के रूप में उसकी असंदिग्ध योग्यता के बावजूद उसका शासन असफल रहा। वह स्वयं भी इस बात को जानता था। अपने द्वितीय पुत्र आजम को लिखे अपने पत्र में उसने स्वीकार किया था : मैं सल्तनत की सच्ची हुकूमत और किसानों की भलाई एकदम नहीं कर सका हूँ। इतनी बेशकीमती जिन्दगी बेकार गई।2
औरंगजेब के काल तक शासन बहुत सीमा तक सम्भला रहा, किन्तु उसके मरते ही राजनीति में उलट-फेर होने लगी। 1712 में बंगाल, बिहार और उड़ीसा का नाममात्र का नाजिम अजीमुद्देशान चल बसा। अतः इन तीनों भू-भागों के नाजिम का स्थान रिक्त हो गया। सन् 1713 में फर्रुखशियर गद्दी पर बैठा, जो एक घणास्पद चरित्र का व्यक्ति था। वह अपने वचन का झूठा, अपने हितैषियों के प्रति कृतघ्न, कपट-योग उत्पीड़क, अस्थिर चित्त, कायर और क्रूर था। इस बुरे शासक के काल में मुर्शिदकुली खाँ ने कथित तीनों प्रान्तों के नाजिम का पद प्राप्त कर लिया। बिहार और उड़ीसा में मुर्शीदकुली स्वयं निजामत तथा दीवानी के अधिकारों का प्रयोग करता रहा। बंगाल और कभी-कभी उड़ीसा में सैयद इकराम खान, सुजाउद्दीन खान, सैयद राजखान, लुत्फ उल्ला और सरफरोज खान नियाबत दीवनी के पदों पर नियुक्त होते रहे। इस समय मुगल शासन में इतनी भी शक्ति शेष न रह गई कि वह बंगाल जैसे सुदूर प्रान्त की देख-भाल ठीक रख सकता। प्रारम्भिक समय में निजामत तथा दीवानी पदों का वितरण दिल्ली का बादशाह स्वयं अपनी इच्छानुसार करता था, किन्तु अब मुर्शिदकुली खान के समय में नाजिम का पद मौरुसी (वंशानुगत) ठहराया गया।
इस समय तक केन्द्रीय सत्ता स्पष्ट रूप से लड़खड़ाती दृष्टिगोचर होने लगी और शासन की आर्थिक स्थिति पर दुष्प्रभाव पड़ा। राजस्व घट गया, संचार-साधन लड़खड़ा गये और उद्योग, व्यापार तथा कृषि को स्थानीय स्वरूप मिलने लगा। केन्द्र-विरोधी शक्तियाँ हावी होने लगीं, न्याय और व्यवस्था बिगड़ गई, वैयक्तिक और सार्वजनिक नैतिकता हिल गई। साम्राज्य टुकड़े-टुकड़े हो गये और विदेशी आक्रमणों तथा आन्तरिक शत्रुओं का मुकाबला करने की उसकी शक्ति टूट गई। अब यूरोपीय राष्ट्रों के प्रतिनिधियों ने भारतीय मामलों में हस्तक्षेप करना प्रारम्भ किया।
मुगल राजनीति में अब तेजी से उलट-फेर प्रारम्भ हुए। नवाब मुर्शिदकुली खान के मरणोपरान्त उसका दामाद सुजाउद्दीन खान (1725-39) नाजिम के पद आरूढ़ हुआ और अपने पुत्र सरफराज खान को अपना दीवान नियुक्त किया। साथ ही, मिर्जा लुत्फ उल्ला भी मीरहबीब नायब नाजिम के पद पर नियुक्ति किये गये। कुछ समय के उपरान्त सरफराज खान को दीवान के पद के अतिरिक्त नायब नाजिम के पद पर नियुक्त किया गया। किन्तु वास्तव में गालिब अली खान और जसवन्त राव नायब दीवान के साथ कार्य करते रहे। शुजाउद्दीन खान के उपरान्त उसका पुत्र सरफराज (1739-40) ने निजामत की बागडोर सँभाली। इसके समय में दीवानी पद के कर्तव्य एक सभा के हाथ में थे, जिसके विशेष सदस्य हाजी अहमद और जगत सेठ थे तथा बिहार की निजामत पर अलीवर्दी खान नियुक्त किये गये थे। अलीवर्दी खान महावत जंग (1740-51) सरफराज खान के पश्चात् बंगाल की गद्दी पर बैठे। इनके समय में नवाजिश मुहम्मद खान दीवान नियुक्त हुए और ढाका के नायब नाजिम भी बने। बिहार प्रान्त में नवाब जीनउद्दीन खान हैबतजंग नायब नाजिम नियुक्ति हुए और उड़ीसा में शौलत जंग नायब नाजिम रहा। सिराजुद्दौला (1756-57) अलीवर्दी खान का नवासा था। उसने मोहनलाल को अपना दीवान बनाया और जसारत खान (1756-81) ढाका का नायब नाजिम रहा। सिराजुद्दौला के काल में बंगाल में प्रसिद्ध प्लासी की लड़ाई हुई जिसके फलस्वरूप देश में पहली बार विदेशी शासन की नींव पड़ी।
संक्षेप में, औरंगजेब की मृत्यु काल से लेकर प्लासी की लड़ाई के पूर्व काल तक बंगाल, बिहार और उड़ीसा की राजनीति मुगल प्रशासन से अप्रभावित रहने लगी। सुकुमार भट्टाचार्य ने लिखा है यह सत्य है कि औरंगजेब की मृत्यु से पूर्व ही षड्यन्त्रकारी शाक्तियों ने सिर उठाना प्रारम्भ कर दिया था। यहाँ तक कि जिस राज्य की जड़े इतनी शक्तिशाली थीं उन्हें धूल-धूसरित कर दिया और अब औरंगजेब के वंश में कोई ऐसा नहीं रहा जो इन षड्यन्त्रों को कुचल सकता। इसका कारण यह था कि मुगलों का विशाल साम्राज्य कई प्रान्तों में विभाजित था जो सूबेदारों के संरक्षण में थे। प्रत्यक्ष है कि ऐसा शासन प्रबन्ध शक्तिशाली केन्द्रीय सरकार की उपस्थिति में ही चल सकता था। लेकिन मुगलों का केन्द्रीय शासन-प्रबन्ध औरंगजेब की अनुपस्थिति में नितान्त शक्तिहीन और अदृढ़ हो गया था। औरंगजेब के सारे के सारे उत्तराधिकारी जहाँदार शाह, फर्रूखशियर मुहम्मद शाह आदि अयोग्य थे जो गिरते साम्राज्य को संभाल नहीं सकते थे। ऐसी स्थिति में मुगल सूबेदार अपने प्रान्तों के स्वामी बन बैठे। इस कारण साम्राज्य में चारों तरफ अशान्ति, उपद्रव षड्यन्त्र आदि के बाजार गर्म हो गये।
जहाँदारशाह लापरवाह, लम्पट और पागलपन की हद तक नशेबाज था। उसने दुराचारपूर्ण और स्त्रैण दरबारी जीवन का एक दुष्ट नमूना सामने रखा और शासक वर्ग की नैतिकता को कलुषित किया। इस कठपुतली बादशाह के काल में सारी सत्ता वजीर तथा अन्य दरबारियों के हाथों में चली गई। उत्तरदायित्व बँट जाने से प्रशासन में लापरवाही आयी और अराजकता फैल गई। अपने ग्यारह महीने के प्रशासन काल में जहाँदारशाह ने अपने पूर्वजों द्वारा संचित खजाने का अधिकांश लूटा दिया। सोना, चाँदी और बाबर के समय से इकट्ठी की गई अन्य मूल्यवान चीजें उड़ा दी गईं। युवक मुहम्मदशाह को प्रशासन में कोई रुचि नहीं थी। वह निम्न कोटि के लोगों से घिरा रहता था और तुच्छ कामों में अपना समय बिताता था। इसी के शासन काल में दिल्ली पर नादिरशाह का आक्रमण हुआ था। उत्तर भारत के राज्यों का उल्लेख किया ही जा चुका है, दक्षिण भारत के राज्य भी अशान्त हो उठे।
दक्षिण में निजाम उल-मुल्क आसिफ जान और अवध में बुरहान-उल-मुल्क सआदत अली खाँ ने स्वतन्त्र राजसत्ता का प्रयोग किया। इसी मार्ग का अनुशीलन रूहेलखण्ड के अफगान पठानों ने भी किया। मराठों ने भी महाराष्ट्र, मध्यभारत, मालवा और गुजरात पर अधिकार करके पूना को अपनी राजनीतिक कार्य-कलापों का केन्द्र बना लिया। अगर 1761 में अहमदशाह अब्दाली के हाथों पानीपत के मैदान में मराठों को पराजय न मिली होती तो आज भारतीय इतिहास की एक नई रूपरेखा होती। भारत में काम करने वाली यूरोपीय कम्पनियाँ क्या इस आन्तरिक फूट से लाभ उठाने के लोभ का संवरण कर सकती थीं ?
मराठों का उत्कर्ष
मुगल शासन की शक्तिहीनता के कारण भारत में आने वाली विदेशी जातियों और उनकी कम्पनियों को प्रभाव जमाने का मौका तो मिला ही, भारत की एक अन्य शक्ति मराठा भी अपना विकास करती गई और मुगल प्रशासन की संप्रभुता को चुनौती देकर अपनी प्रधानता कायम कर ली। उन्नीसवीं शताब्दी का एक अंग्रेज इतिहासकार लिखता है कि औरंगजेब की मृत्यु के साथ ही मुगल साम्राज्य का पतन आरम्भ हो गया। इस समय दक्षिण भारत की यह दशा थी कि प्राचीन राज्य सब छिन्न-भिन्न हो चुके थे और मुगलों का सामना मराठों से था जो प्रतिदिन शक्तिशाली होते जा रहे थे और अन्त में मराठे मुगलों पर छा गये।
मराठों में राजनीतिक जागरण एवं संगठन की पृष्ठभूमि का निर्माण छत्रपति शिवाजी ने किया था। औरंगजेब के शासन-काल में ही उन्होंने तोरण, रामगढ़, चाकन, कल्याणी आदि को जीतकर अपनी शक्ति बढ़ा ली तथा बीजापुर के सुल्तान, यहाँ तक की औरंगजेब से भी संघर्ष करके अपनी अजेय शक्ति का परिचय दिया। उन्होंने स्वतन्त्र मराठा राज्य की स्थापना कर ली जिसे विवश होकर मुगल सम्राट को भी मान्यता देनी पडी। शिवाजी के नेतृत्व में निर्मित मराठा प्रशासन मुगल साम्राज्य की कमजोरी का परिचायक है।
शिवाजी के उत्तराधिकारियों-शम्भाजी, राजाराम, शिवाजी द्वितीय और शाहूजी ने मराठा राज्य का संचालन किया। उनके बाद पेशवाओं की प्रधानता मराठा राज्य में कायम हो गई। बालाजी विश्वनाथ (1713-20), बाजीराव प्रथम (1720-40) और बालाजी बाजीराव (1740-61) नामक पेशवाओं ने मराठा शक्ति को अपने संरक्षण में कायम रखा। यद्यपि एक दिन में मराठे अहमदशाह अब्दाली के हाथों पराजित हुए, तथापि उन्होंने भारत की एक महान शक्ति के रूप में अपना अस्तित्व बनाये रखा। प्लासी की लड़ाई के बाद वे औरंगजेब के एक बड़े विरोधी सिद्ध हुए।
अन्य शक्तियों का उद्भव: उत्तर मुगलकालीन शासकों के शासन काल में मराठों के अतिरिक्त भारत में सिक्खों, राजपूतों, जाटों तथा रुहेलों के रूप में अन्य शक्तियाँ भी उछल-कूद कर रही थीं। सिक्खों ने पंजाब में अपनी शक्ति में वृद्ध कर ली थी। पंजाब में उन्होंने अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर ली और मुगलों की संप्रभूता की अवहेलना कर दी। इसी प्रकार राजपूतों ने राजपूताना में, जाटों ने दिल्ली के आस-पास और रुहेलों ने रुहेलखण्ड में अपनी-अपनी शक्ति का विस्तार कर लिया। मराठों तथा सिक्खों की तरह उन्होंने भी अपनी स्वतन्त्र सत्ता की स्थापना कर डाली।
सम्पूर्ण देश को विघटित करने वाली इन तमाम शक्तियों पर नियन्त्रण रखना मुगल शासकों के लिए सम्भव नहीं रह गया और देश विघटित होने लगा। देश की ऐसी अनैक्यपूर्ण स्थिति में भारत में विदेशी जातियों तथा कम्पनियों का आगमन हुआ और इन नवागत कम्पनियों को अपना अधिकार-क्षेत्र विस्तृत करने का अवसर मिला।
विदेशी जातियों तथा कम्पनियों का आगमन
भारतवर्ष में विदेशियों का आगमन मुख्यतः दो मार्गों से हुआ : स्थल मार्ग और जल मार्ग (सामुद्रिक) मार्ग से। उन्होंने उत्तर-पश्चिम सीमा को लाँघकर स्थल मार्गों के द्वारा तथा विभिन्न सामुद्रिक मार्गों द्वारा भारतवर्ष में प्रवेश किया। स्थल मार्गों से ही मुसलमान भारत आये थे। मुगल शासकों ने अपने काल में विदेशियों के आगमन को रोकने के लिए बड़ी स्थल-सेना तो रखी, किन्तु वे जल-सेना के महत्त्व को नहीं समझ सके और इसलिए उनके काल में अरक्षित समुद्र-मार्गों से उनके यूरोपीय लोग भारत–प्रवेश में सफल हो गये। भारत आकर यूरोप की व्यापारिक जातियों के लोग भारतीय इतिहास को एक नया मोड़ देने लगे।
प्राचीन काल से ही भारत एवं पश्चिम के देशों के बीच अच्छे सम्बन्ध थे और वे एक-दूसरे के साथ व्यापार करते थे। परन्तु सातवीं शताब्दी से अरबों ने हिन्द महासागर तथा लाल महासागर के सामुद्रिक व्यापार पर कब्जा कर लिया। वे अपनी बड़ी नावों में भारतीय सामानों को भरकर पश्चिम से ले जाते थे और उन्हें वेनिस तथा जेनेवा के सौदागरों के हाथ बेचते थे। पन्द्रहवीं सदी के अन्तिम चतुर्थांश में भारत में यूरोप के लोगों का प्रवेश अधिक होने लगा। इसके कुछ विशेष कारण थे।
यूरोप में रेनेसॉ आया था जिसने यूरोपवासियों को कला, साहित्य, विज्ञान, भौगोलिक खोजों आदि के क्षेत्र में प्रगति एवं परिवर्तन लाने का नया दृष्टिकोण दिया था। किन्तु रेनेसॉ का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रभाव भौगोलिक खोज पर पड़ा। भौगोलिक खोज के सिलसिले में पश्चिम की जातियों का भारत के सम्बन्ध में ज्ञान प्राप्त करना और यहाँ आना निश्चित-सा हो गया। जब भारतीय शासकों ने स्थल-मार्ग पर अनेक प्रतिबन्ध लगाये और विदेशी व्यापारियों को विभिन्न व्यापारिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, तब इन व्यापारियों ने स्थल मार्ग को छोड़कर जल-मार्ग का पता लगाना प्रारम्भ किया। उनका श्रम निष्फल नहीं गया। उन्होंने सामुद्रिक मार्ग खोज निकाले।
नये सामुद्रिक मार्गों की खोज की सारा श्रेय पुर्तगालियों को प्राप्त है। पुर्तगाल के राजकुमार हेनरी (1393-1460) ने इस दिशा में सराहनीय कदम उठाया। उसने एक प्रशिक्षण संस्थान की स्थापना की जहाँ नाविकों को वैज्ञानिक ढंग से प्रशिक्षण दिया जाने लगा और उन्हें जल-परिभ्रमण कला की बारीकियाँ बतलायी जाने लगीं। उसने सामुद्रिक यात्रियों को विभिन्न प्रकार की मदद देकर सामुद्रिक यात्रा के लिए उत्प्रेरणा दी। उसी के सहयोग तथा सहायता के फलस्वरूप अफ्रीकी समुद्र-तटों की खोज करने में पुर्तगाली सफल हुए। हेनरी इस बात में विश्वास करता था कि एक दिन पुर्तगाल के साहसिक यात्री अफ्रीका की परिक्रमा करते-करते निश्चित रूप से भारत जाने का मार्ग खोज निकालने में सफल होंगे।
हेनरी से उत्साहित होकर ही बार्थोलोम्यू डियाज ने 1488 ई. में अफ्रीका महाद्वीप के दक्षिण भाग तथा की यात्रा की और उत्तमाशा अन्तरीप को पार कर गया। इसके पूर्व पुर्तगाल के नाविक 1471 ई. में विषुवत् रेखा को पार कर चुके थे और 1484 ई. में कांगों तक पहुँच गये थे। पुर्तगाल के एक अन्य राजा जॉन द्वितीय ने कोविल्हम तथा पेबिया नामक नाविकों को मिस्र के मार्ग से हिन्द महासागर की खोज के लिए भेजा। इनमें कोविल्हम को अधिक सफलता मिली। वह यात्रा के सिलसिले में भारत में मालाबार तट तक आ धमका तथा वहाँ से अरब पार करते हुए उसने अफ्रीका के पूर्वी तट पर अपने चरण धरे।
इन खोजों से प्रभावित होकर पुर्तगालवासी वास्कोडिगामा नामक एक सामुद्रिक यात्री ने 17 मई 1498 ई. को केप ऑफ गुडहोप होकर भारत जाने का मार्ग ढ़ूँढ़ निकाला। इस प्रसिद्ध यात्री ने 8 जुलाई 1497 ई. को अपनी यात्रा प्रारम्भ की और उत्तमाशा। अन्तरीप तथा मोजाम्बीक पार करते हुए भारत के पश्चिमी तटीय प्रदेश कालीकट आ गया।
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with warm regards
Harish Sati
Indira Gandhi National Open University (IGNOU)
Maidan Garhi, New Delhi-110068
(M) + 91 - 9990646343 | (E-mail) Harish.sati@gmail.com
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